Weekly Current Editorial 19 Aug. to 24 August

UPSC में लेटरल एंट्री सिस्टम: एक विस्तृत विश्लेषण


GS 3 (Public Administration)

भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS), भारतीय पुलिस सेवा (IPS), और अन्य केंद्रीय सेवाओं में भर्ती के लिए संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) द्वारा आयोजित की जाने वाली परीक्षा एक कठिन प्रक्रिया है। हालांकि, हाल ही में एक नई पहल के तहत लेटरल एंट्री सिस्टम को लागू करने की बात की जा रही है। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम लेटरल एंट्री सिस्टम पर विस्तार से चर्चा करेंगे और यह समझेंगे कि यह सिस्टम UPSC के संदर्भ में कैसे कार्य करता है।

लेटरल एंट्री सिस्टम क्या है?


लेटरल एंट्री सिस्टम का तात्पर्य सरकारी सेवाओं में मौजूदा सरकारी कर्मचारियों या पेशेवरों के लिए पदों पर सीधी भर्ती से है। सामान्यतः, UPSC की परीक्षा के माध्यम से नई भर्ती की जाती है, लेकिन लेटरल एंट्री सिस्टम के तहत, विशिष्ट क्षेत्रों में अनुभव रखने वाले उम्मीदवारों को सीधे प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया जा सकता है।


लेटरल एंट्री सिस्टम की आवश्यकता


भारतीय प्रशासनिक सेवा में लेटरल एंट्री सिस्टम की आवश्यकता को निम्नलिखित कारणों से समझा जा सकता है:


1. विशेषज्ञता और अनुभव: लेटरल एंट्री से उन उम्मीदवारों को मौका मिलता है जिनके पास विशिष्ट क्षेत्रों में अनुभव और विशेषज्ञता है, जिससे प्रशासनिक तंत्र को बेहतर दिशा मिलती है।

2. प्रशासनिक सुधार: अनुभवी पेशेवरों की भर्ती से प्रशासनिक प्रक्रियाओं में सुधार हो सकता है और सरकारी कामकाज में अधिक कुशलता आ सकती है।

3. पेशेवर दृष्टिकोण: सरकारी सेवाओं में पेशेवर दृष्टिकोण और विविध अनुभव लाने के लिए लेटरल एंट्री एक प्रभावी तरीका हो सकता है।


लेटरल एंट्री सिस्टम का कार्यप्रणाली


UPSC में लेटरल एंट्री सिस्टम की कार्यप्रणाली कुछ इस प्रकार हो सकती है:


1. विज्ञापन और अधिसूचना: UPSC या संबंधित सरकारी विभाग विभिन्न पदों के लिए लेटरल एंट्री की अधिसूचना जारी करते हैं। इसमें पदों की संख्या, आवश्यक योग्यता और चयन प्रक्रिया के बारे में जानकारी होती है।

2. आवेदन प्रक्रिया: इच्छुक उम्मीदवार अपनी योग्यता और अनुभव के आधार पर आवेदन प्रस्तुत करते हैं। आवेदन पत्र में उनके पेशेवर अनुभव, शैक्षिक योग्यताएँ और अन्य संबंधित जानकारी शामिल होती है।

3. साक्षात्कार और चयन: आवेदन पत्रों की जांच के बाद, उम्मीदवारों को साक्षात्कार के लिए बुलाया जाता है। साक्षात्कार में उनके पेशेवर अनुभव और विशेषज्ञता की समीक्षा की जाती है।

4. नियुक्ति: साक्षात्कार और अन्य चयन प्रक्रियाओं के आधार पर योग्य उम्मीदवारों को संबंधित पदों पर नियुक्त किया जाता है।


लेटरल एंट्री के लाभ


लेटरल एंट्री सिस्टम के कई लाभ हो सकते हैं:


1. प्रभावशीलता में वृद्धि: अनुभवी पेशेवर सरकारी तंत्र में नई ऊर्जा और प्रभावशीलता ला सकते हैं।

2. स्वतंत्रता और नवाचार: नए दृष्टिकोण और विचार लाने के लिए लेटरल एंट्री से प्रशासनिक प्रक्रियाओं में स्वतंत्रता और नवाचार को बढ़ावा मिल सकता है।

3. जल्दीनुसार समायोजन: विशेष क्षेत्रों में अनुभव रखने वाले पेशेवर जल्दी से सरकारी कामकाज में समायोजित हो सकते हैं।

UPSC में लेटरल एंट्री सिस्टम: एक विस्तृत विश्लेषण
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चुनौतियाँ और समस्याएँ


हालांकि लेटरल एंट्री सिस्टम के कई लाभ हैं, लेकिन इसके साथ कुछ चुनौतियाँ भी जुड़ी हो सकती हैं:


1. प्रशिक्षण और समायोजन: नए कर्मचारियों को सरकारी प्रक्रियाओं और नीतियों के बारे में प्रशिक्षण देना आवश्यक होता है।

2. प्रभावी चयन प्रक्रिया: सुनिश्चित करना कि चयन प्रक्रिया पूरी तरह से पारदर्शी और निष्पक्ष हो, एक महत्वपूर्ण चुनौती हो सकती है।


निष्कर्ष


UPSC में लेटरल एंट्री सिस्टम सरकारी सेवाओं में पेशेवरों और विशेषज्ञों को शामिल करने का एक प्रभावी तरीका हो सकता है। इससे प्रशासनिक तंत्र को नए दृष्टिकोण और अनुभव प्राप्त होते हैं, जो सरकारी कार्यों को अधिक प्रभावी बना सकते हैं। हालांकि, इसके सफल कार्यान्वयन के लिए उचित चयन प्रक्रिया और समायोजन की आवश्यकता होती है।

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जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम


सामने आ रहे जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम इस माह के आरंभ में केरल के वायनाड में भारी बारिश और भूस्खलन के कारण सवा दो सौ से अधिक लोगों की जान चली गई। साथ ही, सैकडों लोग घायल हो गए और आधारभूत संरचना को भी व्यापक नुकसान पहुंचा। वैसे हमारे देश में रहन-सहन की प्रकृति आधारित प्रणाली प्राचीन काल से ही है, परंतु पिछले कुछ वर्षों से वैश्वीकरण एवंआधुनिकीकरण जैसे कारणों ने हमारी जीवनशैली को बदल दिया है, जिसके दुष्परिणाम भी अब दिखने लगे हैं। ऐसे में हमें इन तथ्यों पर नए सिरे से गौर करना होगा एवं अपने आचरण में परिवर्तन लाना होगा


पृथ्वी का बदलता स्वरूप पृथ्वी पर मानव जीवन को कठिन बना रहा है। हाल ही में केरल के वायनाड में हुई भयावह तबाही की परिकल्पना शायद ही उस क्षेत्र के लोगों ने कभी की होगी, जिसमें सवा दो सौ से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है एवं सैकड़ों की संख्या मैं लोग घायल हुए हैं। इस आपदा ने हमें आर्थिक, मनौवैज्ञानिक एवं सामाजिक रूप से भी काफी चोट पहुंचाया है। इस घटना के लिए मूल रूप से मानव के विभिन्न पर्यावरणीय अहित कार्यों से उत्पन्न हो रहा जलवायु परिवर्तन प्रमुख कारण है। हाल के वर्षों में पर्यावरण की चरम घटनाओं की आवृत्ति एवं संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज हुई है। जिस कारण से किसे क्षेत्र में बहुत अधिक तो किसी क्षेत्र में बिल्कुल कम वर्षा का पैटर्न देखने को मिल रहा है। इस भूस्खलन के पीछे भी भारी बारिश व्यापक रूप से जिम्मेदार है, जो जलबायु परिवर्तन के कारण संबंधित आंकड़ों के अनुसार सामान्य से 10 प्रतिशत से अधिक थी। बायनाड का यह क्षेत्र प्राकृतिक रूप से काफी संवेदनशील क्षेत्र में आता है, जहां अत्यधिक संख्या में आबादी की मौजूदगी, बन क्षेत्र में 60 प्रतिशत से अधिक की कमी एवं निर्माण कार्यों के लिए खुदाई एवं अन्य गतिविधियों ने भी इस प्राकृतिक आपदा से हुए दुष्परिणाम को बढ़ा दिया। 


जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव 


भारत के संदर्भ में जलवायु परिवर्तन का बीते कुछ दशकों से काफी विपरीत प्रभाव रहा है। अत्यधिक संख्या में सामने आ रही विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं एवं उसके दुष्परिणामस्वरूप होने वाले भयावह नुकसान के तौर पर इसे अक्सर देखा भी जा रहा है। संबंधित आंकड़ों के अनुसार भारत में वर्ष 1901 के बाद से औसत तापमान में लगभग 0.6 डिग्री सेल्सियस वृद्धि हुई है। जिस कारण से बाताबरण में पानी ग्रहण करने की क्षमता भी बढ़ी है। इसके परिणामस्वरूप वर्ष के पैटर्न में अप्रत्याशित बदलाव एवं एक्सट्रीम वेदर इवेंट की संख्या व आवृत्ति में वृद्धि हुई है। विभिन्न क्षेत्रों में हो रही भयावह भूस्खलन की घटनाएं भी मूल रूप से चरम वर्षा एवं उसके पश्चात के प्रभावों का ही परिणाम है।


इसी क्रम में कान्फ्रेंस आफ पार्टी (COP), जो एक विश्वस्तरीय मंत्र है, जहाँ जलवायु परिवर्तन से संबंधित विषयों पर चर्चा एवं समाधान के संबंध में कार्य किए जाते हैं, वहां भी भारत सरकार अपनी सक्रिय भूमिका निभा रही है। साथ ही तय किए गए विभिन्न लक्ष्यों की और भी भारत पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ रहा है। चाहे वह स्वच्छ ऊर्जा की बात हो या फिर कार्बन उत्सर्जन कम करने एवं कार्बन न्यूट्रलिटी की और बढ़ने की आवश्यकता हो। इसी कड़ी में मिशन लाइफ (लाइफस्टाइल फार एनवायरमेंट) पर हो रहे कार्य भी काफी सराहनीय हैं। परंतु इन सब सकारात्मक कार्यों के बावजूद भारत के सामान्य जनमानस को जलवायु परिवर्तन के प्रति जागरूक होना होगा एवं विश्व के अन्य देशों को भी सकारात्मक मानसिकता के साथ आगे बढ़ना होगा। 


गाडगिल कमिटी रिपोर्ट


भारत का पश्चिमी घाट पर्यावरण, पारिस्थितिकी एवं आपदा की दृष्टि से काफी संवेदनशील है। जिसकी पुष्टि डा. माधव गाडगिल द्वारा प्रस्तुत की गई गाडगिल कमिटी रिपोर्ट 2011 में भी प्रमुखता से की गई थी। इस रिपोर्ट में उन्होंने पश्चिमी घाट के पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र को जोन एक, दो और तीन में बांटा था। । 


इसमें जोन एक को काफी संवेदनशील होने के कारण इस क्षेत्र में रेत खनन समेत सभी प्रकार के उत्खनन आदि कार्यों पर रोक लगाने की बात कही थी। साथ ही वाणिज्य, कृषि एवं अन्य विकासात्मक कार्यों को भी अलग-अलग जौन के हिसाब से काम करने की बात कही गई थी। वस्तुतः यह रिपोर्ट 'बाटम अप अप्रोच' के तहत तैयार की गई थी। उल्लेखनीय है कि पर्यावरण संरक्षण के लिए इसी अप्रोच की संस्तुति की जाती है। परंतु क्षेत्र में बढ़ते जनसंख्या दबाव के मद्देनजर आजीविका एवं विकास में बाधा की आशंकाओं के बीच इसके क्रियान्वयन का विरोध किया गया। साथ ही, वर्ष 2012 की कस्तूरीरंगन रिपोर्ट लगभग 81 प्रतिशत गाडगिल संस्तुति के पक्ष में नहीं थी। विकासात्मक कार्य, उत्खनन, परिवहन ढांचा विकास आदि के पैमानों पर भी राज्यों ने इसका विरोध किया था। परंतु अब वह समय आ चुका है जब जनसंख्या दबाव, जलवायु परिवर्तन एवं विकास के बीच में संतुलन स्थापित कर उपरोक्त रिपोर्ट को चरमबद्ध तरीके से क्रियान्वित किए जाने की और बढ़‌ना होगा।


आगे की राह 


एक गंभीर विषय के रूप में सामान्य जनमानस तक जलवायु परिवर्तन की पहुंच आज भी काफी हद तक सुनिश्चित नहीं हो पाई है। अब भी महज संभ्रांत लोगों के बीच ही यह चर्चा के विषय के रूप में बना हुआ है। परंतु प्रभाव की बात करें तो इसका विपरीत असर गरीबों पर तुलनात्मक रूप से कहीं अधिक है। इस कारण इसे उनके बीच एवं उनसे जुड़े मुद्दे के रूप में लाना होगा। इसमें 'लाइफस्टाइल फार एनवायरमेंट' की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। वैसे तो भारत की परंपरा एवं समाज में पर्यावरण के प्रति सम्मान पूर्व पर्यावरण हितकर कार्यों का समावेश प्राचैन काल से रहा है। परंतु आधुनिकीकरण एवं वैश्वीकरण के दौर में पर्यावरण से अलगाव के भी काफी बड़ी संख्या में उदाहरण मौजूद हैं, जिसने पर्यावरण की प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है। अतः हमें पुनः अपने जीवन में पर्यावरण केंद्रित जीवनशैली को अपनाना होगा। इस क्रम में शैक्षणिक संस्थाओं की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो जाती है, जिनके पास बड़ी संख्या में छात्र, शिक्षक एवं बुनियादी ढांचे उपलब्ध हैं। इन सभी के उपयोग से लोगों के बीच जागरूकता एवं जन भागीदारी को सुनिश्चित किया जा सकता है।


जनसंख्या नियंत्रण एक चुनौती


भारत विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश बन चुका है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों सेजनसंख्या वृद्धि दर में कमी आई है, फिर भी हमारी विशाल आबादी को नियंत्रित करना बड़ी चुनौती है। ऐसे में केंद्र सरकार ने तय किया है कि जनसंख्या नियंत्रण के लिए कड़े कानून बनाने के बजाय कुछ विशेष जिलों पर फोकस कर मिशन मोड में अभियान चलाया ज


सरकार के एजेंडे में जनसंख्या का प्रमुख स्थान है। यह आम मान्यता है कि जनसंख्या वृद्धि देश के विकास का दुश्मन है, सौ जनसंख्या नियंत्रण के सरकारी उपायों को हर वर्ग का समर्थन है। केंद्र सरकार ने आठ साल पहले 146 जिलों में जनसंख्या नियंत्रण अभियान चलाया था। सरकार अब इस प्रोजेक्ट को 340 अन्य जिलों में भी लागू करने जा रही है। हालांकि सरकार ने पहले कुछ कठोर कानूनों का मन बनाया था, जिसकी झलक उत्तर प्रदेश के जनसंख्या नियंत्रण कानून प्रस्ताव में दिखी थी, परंतु अलोकप्रिय होने की आशंका के मद्देनजर उसने कानून का सहारा लेने के बजाय प्रभावी परिवार नियोजन का रास्ता निकाला है। अब सरकार एक रोडमैप बनाकर अधिक प्रजनन दर वाले जिलों में एक आक्रामक अभियान चलाएगी, क्योंकि देश के कुछ ही राज्य और उनके भी कुछ खास जिले ही हैं, जहां प्रजनन दर देश की औसत से ज्यादा है। यदि यहां प्रजनन दर को काबू किया जाए तो समूचे राज्य का आंकड़ा सुधर जाएगा।


जनसंख्या नियंत्रण पर सरकार की इस योजना का इरादा साइंटिफिक और तार्किक है। यदि जनसंख्या नियंत्रण की सामान्य सरकारी नीति को समूचे देश पर लागू करने का प्रयास किया जाए तो इसके प्रति विभिन्न राज्यों की सक्रियता भिन्न होगी। इस मामले में उनकी आवश्यकता और स्तर भी अलग होगा, फिर कानून बनाने के बाद उसे लागू कराना और भी पेचीदा काम है। ऐसे में सरकार द्वारा सीधे लक्ष्य पहचान कर उस पर निशान लगाना अधिक श्रेयस्कर है। इससे अपेक्षित परिणाम शीघ्र मिल सकते हैं। 


आज देश के 29 राज्यों में प्रजनन दर दो या दो से कम है। अर्थात एक स्त्री के 2 बच्चे। लड़का-लड़की के उचित अनुपात के लिए भो इतना तो जरूरी है। यह प्रजनन दर के स्थिरीकरण की स्थिति है। वैसे प्रजनन दर का इससे बहुत नीचे जाना भी ठीक नहीं। इस मामले में बिहार चिंता का विषय है, जहां प्रजनन दर तीन के आसपास है। उत्तर प्रदेश की प्रजनन दर 2.4 भले ही मेघालय जैसे छोटे राज्य की 2.9 से कम होने पर भी यह उससे ज्यादा चिंतनीय इसलिए है, क्योंकि मेघालय उसके मुकाबले बहुत छोटा राज्य है। 20 करोड़ से ज्यादा आबादी वाले उत्तर प्रदेश में 27 जिले ऐसे हैं जिनकी प्रजनन दर राष्ट्रीय औसत से अधिक है। इनमें से सात जिलों में तीन से अधिक और सात जिलों में 2.5 से अधिक प्रजनन दर हैं, जबकि शेष 13 जिले दो या वे से अधिक प्रजनन दर वाले। 


अब सरकार यदि श्रावस्ती, बहराइच, बलरामपुर जैसे 3.5 से अधिक की प्रजनन दर वाले जिलों में परिवार नियोजन के सघन अभियान चलाकर 2.5 से नीचे ले आए तो यह पूरे प्रदेश के आंकड़े को सुधार देगा, क्योंकि जो जिले 2.5 से ऊपर हैं, वे इस प्रक्रिया में 2.2 के आसपास अवश्य पहुंच जाएंगे। ऐसे में जनसंख्या नियंत्रण के लिए चयनित क्षेत्रों का प्रयास स्वागत योग्य है। यदि पूरे प्रदेश पर जनसंख्या नियंत्रण अभियान थोपा जाए तो जिन जिलों की प्रजनन दर दो या उससे नीचे हैं, उसके और नीचे चले जाने की आशंका रहेगी और यह प्रदेश के भविष्य के लिए खतरनाक होगा। उत्तर प्रदेश में वर्ष 1991 से 2011 के बीच जनसंख्या वृद्धि में पांच प्रतिशत की कमी हुई है। यह भी स्मरण योग्य है कि उत्तर प्रदेश की आबादी में 10 से 19 वर्ष के किशोर-किशोरियों और 15 से 24 साल के युवाओं का प्रतिशत सर्वाधिक है और यह प्रदेश के लिए अच्छी बात है, इस स्थिति को बनाए रखना होगा। दूसरी तरफ प्रदेश में 15 से 19 साल की चार प्रतिशत लड़कियां मां बन जाती हैं और 30 प्रतिशत लड़कों की शादी 21 बरस के पहले हो जाती है। 


जनसंख्या नियंत्रण के जिला केंद्रित अभियान में इन आंकड़ों पर भी नजर रखनी होगी। बेशक सरकार इन्हीं कारकों को दूर करने जा रही है जिनमें परिवार नियोजन के लिए लोगों को मजबूर नहीं, बल्कि राजी किया जाएगा। जनसंख्या नियंत्रण के प्रयास जरूरी हैं, खास तौर पर कुछ राज्यों में, पर जब कुछ को छोड़कर देश के तमाम राज्यों की प्रजनन दर घटाव पर हो, लोग लंबी उम्र तक जीते हुए कम बच्चे पैदा कर रहे हों, जिससे बीते दो दशकों से जनसंख्या वृद्धि दर का ग्राफ लगातर नीचे जा रहा हो, उसकी रफ्तार घट गई हो, प्रजनन दर गिरती जा रही हो, ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही हो कि चार दशक बाद देश की जनसंख्या बुरी तरह घट जाएगी जिसमें 60 बरस से ऊपर के अनुत्पादक बुजुर्गों और अश्रित महिलाओं की संख्या लगभग 35 करोड़ होगी जिनकी सामाजिक सुरक्षा पर व्यय एक बड़ी सरकारी समस्या बन सकती है


दो दशक पहले यूपी में प्रजनन दर चार के करीब थी, यह घटती हुई 2.4 पहुंच चुकी है जिसके अगले साल 2.1 पर पहुंचने की उम्मीद लगाई जा रही है। इसी तरह के उम्मीद दर्जन भर दूसरे राज्यों के बारे में भी है। सो UP या ऐसे बहुत से राज्यों में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति नहीं है। यह प्रजनन दर उस रिप्लेसमेंट अनुपात के करीब है, जो वंश चलाए रखने के लिये जरूरी है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के अनुसार, सभी धार्मिक समूहों में प्रजनन दर कम हो रही है। हिंदुओं में यह दर 1.9 है। यह ठीक है कि मृत्यु दर में कमी आई है, पर जन्म दर में भी गिरावट दर्ज की गई है। यह गिरती जनसंख्या का बड़ा कारक है। सरकार की जनसंख्या नियंत्रण नीति उचित है, पर उसे दूरगामी परिणामों को भी ध्यान में रखना होगा। ऐसा न हो कि चार दशक बाद आबादी बढ़ाने के लिए अभियान चलाना पड़े और तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।


एम पॉक्स वायरस: एक व्यापक अवलोकन


हाल के वर्षों में, "एम पॉक्स" (Mpox) वायरस ने वैश्विक स्वास्थ्य समुदाय का ध्यान खींचा है। यह वायरस, जिसे पहले "मंकीपॉक्स" के नाम से जाना जाता था, एक वायरल संक्रमण है जो संक्रमित जानवरों से मनुष्यों में फैल सकता है। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम एम पॉक्स वायरस के बारे में विस्तार से जानकारी देंगे और इसके प्रभावों, लक्षणों और उपायों पर चर्चा करेंगे।


एम पॉक्स वायरस क्या है?


एम पॉक्स वायरस एक वायरल रोग है जो कोरोनावायरस परिवार से संबंधित है। यह वायरस मुख्य रूप से अफ्रीका के कुछ हिस्सों में पाया जाता है, लेकिन हाल के वर्षों में इसके मामलों की संख्या अन्य क्षेत्रों में भी बढ़ी है। यह वायरस आमतौर पर जंगली जानवरों, जैसे कि कृन्तक और प्राइमेट्स, से मानवों में फैलता है।


एम पॉक्स के लक्षण


एम पॉक्स के लक्षण सामान्यतः 7 से 14 दिन के भीतर दिखाई देते हैं। ये लक्षण वायरल संक्रमण के अन्य प्रकारों से मिलते-जुलते हो सकते हैं, लेकिन इनमें कुछ विशेषताओं की पहचान करना महत्वपूर्ण है:


1. बुखार: एम पॉक्स के शुरुआती लक्षणों में उच्च बुखार शामिल होता है।


2. मुखदर्द और मांसपेशियों में दर्द: रोगी को सिरदर्द और मांसपेशियों में दर्द का सामना करना पड़ सकता है।


3. लसीका ग्रंथियों में सूजन: सूजन और दर्द महसूस हो सकता है, खासकर गर्दन, बगल और अन्य क्षेत्रों में।


4. त्वचा पर दाने: एम पॉक्स का एक प्रमुख लक्षण त्वचा पर लाल चकत्ते या दाने का होना है, जो धीरे-धीरे फफोले में बदल जाते हैं।


संक्रमण के तरीके


एम पॉक्स वायरस आमतौर पर संक्रमित जानवरों के संपर्क में आने से फैलता है। यह संपर्क सीधे हो सकता है, जैसे कि जानवरों के खून या तरल पदार्थ के संपर्क से। इसके अतिरिक्त, व्यक्ति-से-व्यक्ति संचरण भी संभव है, खासकर तब जब कोई संक्रमित व्यक्ति अपनी त्वचा पर खुले घावों के साथ संपर्क में आता है।


निदान और उपचार


एम पॉक्स का निदान आमतौर पर चिकित्सीय परीक्षणों और लक्षणों के आधार पर किया जाता है। इसकी पुष्टि के लिए वायरस की पहचान के लिए विशेष प्रयोगशाला परीक्षण किए जा सकते हैं।


वर्तमान में एम पॉक्स के लिए कोई विशेष एंटीवायरल दवा उपलब्ध नहीं है, लेकिन उपचार के दौरान लक्षणों को प्रबंधित करने के लिए विभिन्न तरीके अपनाए जा सकते हैं। सामान्यतः, संक्रमित व्यक्ति को आराम, तरल पदार्थ, और दर्द निवारक दवाइयाँ दी जाती हैं।


बचाव और सुरक्षा


एम पॉक्स के संक्रमण से बचाव के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:


1. जानवरों से संपर्क बचाना: अगर आप उस क्षेत्र में रहते हैं जहां एम पॉक्स प्रचलित है, तो संक्रमित जानवरों से संपर्क करने से बचें।


2. हैंडवाश: बार-बार हाथ धोना और स्वच्छता का ध्यान रखना महत्वपूर्ण है।


3. स्वास्थ्य मानक: स्वास्थ्य मानकों का पालन करें और संक्रमित व्यक्तियों के संपर्क में आने से बचें।


निष्कर्ष


एम पॉक्स वायरस एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या हो सकता है, लेकिन उचित जानकारी और सावधानियों के माध्यम से इसके प्रभावों को नियंत्रित किया जा सकता है। जागरूकता और स्वास्थ्य प्रबंधन की रणनीतियों के साथ, हम इस वायरस से संबंधित जोखिमों को कम कर सकते हैं और एक स्वस्थ समाज की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं।


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